*करोड़ों सूर वीर जीवनदाताओं की करुण गाथा, मां के आंचल में पल-पल खंजर*
बेबस हूं मैं संतान धरा की, मां के लिए कुछ नहीं कर पाता हूं…
हर लम्हा तड़पती है मां मेरी, हर पल खंजर सीने में खाता हूं ।
अपनी नस्ल को धोखा मत दो, अपने जीवन के उद्देश्य को मत भटकने दो….
हर मंजर मेरे जीवन का कुरुक्षेत्र बन जाता है, अभिमन्यु की तरह जीवन में हर लम्हा संघर्ष मां के सामने आता है ।
नियति का संतुलन बनता है तो बनने दो, मत छीनो मेरे जीवन का अधिकार, मुझे भी जीने दो…
नन्हा सा पौधा हूं मैं तुम्हारे जीवन का, मुझको भी जन जीवन में समर्पित होने दो…
राजा रंग सामान सब यहां, रग रग का वासी हूं…
जीवन सफल बने जनमानस का इसी बात का अभिलाषी हूं…
प्रेम कहे धरती मां की, संतान मैं धरा धरोहर कहलाता हूं…
हर मंजर से जिंदगी को जी कर, पल पल सीने पर खंजर खाता हूं…
मासूम पौधे की मां धरती से पूछो, के दर्द कितना सीने में है…
एहसास करो तुम भी, संतान बिना दर्द कितना जीने में है…
जब बात संतान के जन्म मरण की आए तो, तन बदन में आग लग जाती है, मेरी मां धरा , हर पल हर लम्हा अपने दर्द बताती है…
बिगड़े ना संतुलन नियति का, फिर से सौंदर्य धरा का बनती है…
मां के आंचल में तड़प तड़प कर संतान अपने प्राण गावती है,
मेरी बेवस धरती माता कुछ नहीं कह पाती है…
बेबस नियति के हाथों मेरी धरती माता, फिर से नियति हित में अपना फर्ज निभाती है ।
समझो मेरी मां का दर्द, हम संतान धरा के कहलाते हैं….
अरे तुम भूल गए फर्ज अपना, हम मरते मरते फर्ज निभाते हैं …
जीवन के चक्कर में, चलना फिरना तुमने हमसे सीखा, अंत काल तक हम साथ निभाते हैं ।
जीते जी हम तुमको जीवन दें, मरते दम तक साथ निभाते हैं ..
याद रखो 100 में से 99 वापस आए, लेकिन हम फिर भी साथ तुम्हारे जाते हैं….
सगे संबंधी वापस आते, साथ तुम्हारे चिता में हम ही जाते हैं…
कर्म तुम्हारा तुम्हारे साथ और हम तुम्हें स्वर्ग तक पहुंचाते हैं ।
हम धारा के सूरपुत्र हैं हर लम्हा अपना फर्ज निभाते हैं…
जीते जी जीवन दें और मरते दम तक साथ निभाते हैं…
हम बेबस के सूर पुत्र हैं, नियति निर्धारित हर करम को, बर खूबी निभाते हैं ।
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