*विश्व शांति दिवस विशेष: एक संपूर्ण क्रांति – श्री आशुतोष महाराज जी (संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)*

*विश्व शांति दिवस विशेष: एक संपूर्ण क्रांति – श्री आशुतोष महाराज जी (संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)*
अलीगढ़/मेरठ।
‘क्रांति’ का अर्थ क्या होता है? आनंदपूर्ण परिवर्तन अर्थात् पूर्ण बदलाव। विश्व ने आज तक अनेक क्रांतियाँ देखी हैं- राजनैतिक, सामाजिक, औद्योगिक, आर्थिक आदि। हर क्षेत्र में और हर स्तर पर क्रांतियाँ घटी हैं। आप हैरान होंगे कि सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए पिछले 3000 सालों में करीबन 5000 युद्ध लड़े जा चुके हैं। पर प्रश्न है कि क्या ये क्रांतियाँ या क्रांतिकारी युद्ध अपने लक्ष्य में सफल हुए? क्या समाज में कोई आनंदपूर्ण बदलाव आया? विडम्बना है कि स्थितियाँ बेहतर होने की अपेक्षा बदतर होती गईं। समाज को शोषण से मुक्त करने के लिए जिन्होंने नारे बुलन्द किए, वे खुद ही शोषक बन गए। उदाहरणतः रूस की क्रांति। रूस का ज़ार तानाशाह था। उसकी तानाशाही व अत्याचार से जनता स् थी। लेनिन ने उसके विरुद्ध एक क्रांति का सूत्रपात किया। क्रूर ज़ार को सत्ता से उतार फेंका। फिर? फिर क्या हुआ? लेनिन के रूप में एक दूसरा क्रूर शासक सत्तारूढ़ हो गया। अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए उसने हर विरोधी को कुचल डाला। विदेशी क्रांतियों की ही क्यों, अपने देश भारत की क्रांति की ओर दृष्टिपात करें फिरंगियों को अपनी धरती से खदेड़ देने के लिए क्रांतिकारी वीरों ने बलि चढ़कर स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को जीवित रखा। परिणाम भारत स्वतंत्र हुआ। भारत विश्व में सबसे बड़ा जनतंत्र देश बन गया। पर मैं पूछता हूँ कि जनतंत्र और राजतंत्र में फर्क क्या है? जो कार्य पहले राजा किया करते थे, वही अब नेता करते हैं। फिर बदलाव कहाँ आया? केवल नाममात्र में इसलिए मेरा तो यही कहना है कि जब तक क्रांतियों द्वारा केवल व्यवस्थापक बदले जाएँगे, तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं जब तक क्रांतियों का लक्ष्य केवल व्यवस्था बदलना होगा, तब तक भी आनंदकारी परिवर्तन की इच्छा एक चिर पुकार बनकर मानव के हृदयों से उठती रहेगी। फिर समाधान क्या है? क्रातियों का लक्ष्य अगर व्यवस्थापक या व्यवस्था बदलना न हो, तो क्या हो ? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है। यदि बदलना है, तो व्यवस्थापकों के अंतर्मन को बदलो लोभी, लालची, सांसारिक इच्छाओं तृष्णाओं से भरा मन ही क्रांतिकारी को पथभ्रष्ट करता है और क्रांतियों को विफल। किसी दार्शनिक ने ठीक कहा है- Eradicate the cause & symptoms will disappear- मूलभूत कारण को ही खत्म कर दो, उससे उत्पन्न लक्षण तो अपने आप ही लुप्त हो जाएँगे। अतः मेरा यही कहना है कि जब तक इंसान का मन विकसित नहीं हुआ, चेतना जागृत नहीं हुई, तब तक वह कभी किसी समाधान का अंग नहीं बन सकता। केवल और केवल समस्या का ही अंग बनेगा। अगर यथार्थ में क्रांति लानी है, यानी आनंदकारी परिवर्तन की चाह है, तो सर्वप्रथम व्यक्ति की चेतना और अंतर्मन में परिवर्तन लाना होगा। अध्यात्म द्वारा उसे जागृत करना होगा। ब्रह्मज्ञान की अग्नि में उसके मन-चित्त में बसे कुसंस्कारों, तृष्णाओं, स्वार्थों को स्वाहा करना होगा। इस मन रूपी जड़ को परिवर्तित करने पर ही समाज में परिवर्तन संभव है। और यह परिवर्तन केवल ‘ब्रह्मज्ञान’ द्वारा ही आ सकता है। इस परिवर्तन को ही महर्षि अरविंद ने ‘संपूर्ण क्रांति’ व ‘सांस्कृतिक क्रांति’ कहा है। ‘सांस्कृतिक क्रांति का अर्थ है- संस्कारित करना, परिष्कृत करना, भीतर से सजाना और परिवर्तन लाना। यह ऐसी क्रांति है, जिससे हमारा हृदय, हमारी चेतना, हमारा अंतःकरण, मन-चित्त, आंतरिक प्रवृत्ति ही सकारात्मक रूप से बदल जाए। निःसंदेह, आज विश्व को ऐसी ही क्रांति की आवश्यकता है। अंत में, मैं यही कहूँगा To have peace in the world, we need no more ‘Revolution’, but man’s ‘Evolution’- विश्व में शांति के लिए हमें क्रांतियों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि मानव की चेतना के विकास की जरूरत है। ब्रह्मज्ञान का प्रचार-प्रसार कर दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आज इसी कार्य में संलग्न है।

*रिपोर्ट;-दीपक सागर*

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